Wednesday, August 29, 2012

कसाब की फांसी: भाग 1


पापी कौन?

मनुज से उसका न्याय चुराने वाला?

या कि न्याय खोजते विघ्न का सीस उड़ाने वाला?


आज कसाब की फांसी पे सर्वोच्च न्यायलय ने मुहर लगा दी . इस बात से मुझे उस दिन की याद यकायक आ जाती है, जब मैं रात को तीन बजे उठा था। 26 नवम्बर 2008, मेरे चाचा ने 3 बजे फ़ोन किया और कहा  टीवी चालु करो और देखो क्या हुआ है।

समाचार देख के आँखें सन्न रह गयी।

फिर नींद कहाँ। मेरी माँ भी जागी, और एक फ़िक्र शुरू हो गयी, क्या ये अंत है? क्या ये अंत है उस संविधान का जिसके लिए हम रोज़ स्कूल में प्रतिज्ञा लेते थे? क्या ये अंत है उस भारतवर्ष के अभिमान का जिसके लिए हम हर किसी के सामने घमंड में सर ऊंचा करते हैं?

हाँ ये अंत था उस नासमझ और अंधे घमंड का। वो घमंड ही तो था। सैंकड़ो निबंध लिखे होंगे मैंने भारत की तारीफ़ में। कई बार 26 जनवरी पे देशभक्ति गीत गाये होंगे। 'जन गन मन' ये गाते वक़्त मेरा सर अभिमान में ऊंचा रहा होगा, भारत कितना महान है, उसकी महानता के लिए क्या क्या नहीं कहा होगा। लेकिन उस एक दिन की घटना से मेरा विश्वास भारत की महानता से उठ सा गया। क्यूँ?

कुछ आतंकवादी भारत में घुस आते हैं, हत्याएं करते हैं, लोगो को बंदी बना के रखते हैं तीन दिन तक। कहाँ? देश के सबसे प्रसिद्ध होटल में। शर्म की बात थी।

तीन दिन तक एक पूरा देश उस होटल में क्या हो रहा है उस से जलता रहा। कभी बम फटने की आवाज़ का समाचार दिखाया जाता चैनल पे तोह कभी गोली की आवाज़ का। कभी आग लग जाती किसी गुम्बद पे तो कभी किसी के मारे जाने की खबर आती। शर्म की बात ये नहीं थी की मैं या आप कुछ नहीं कर सकते थे। शर्म की बात ये थी कि हम ऐसा होने दे गए।

कौन ज़िम्मेदार है कौन नहीं इस पर कसाब के मरने के कई सालो तक बहस चलेगी। आज तक पाकिस्तान कहता है की उन्हें इस के बारे में कुछ नहीं पता। आज तक हमारे आदरणीय राजनीतिज्ञ कुछ नहीं कर पाए। कसाब की फांसी हमारा उद्देश्य नहीं थी। लेकिन वो उद्देश्य बन गयी जब हम भूल गए की कसाब अकेला ज़िम्मेदार नहीं था।

क्रमशः

Friday, July 27, 2012

वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी..
आज शनिवार के दिन मेरे लिए सवेरा कुछ जल्दी ही हो जाता है, सवेरे सवेरे क्रिकेट खेलने का शौक हमें मैदान की ओर ले जाता हैवहाँ कुछ देर खेल के चूर हो जाने के बाद, ऐसे ही एक पिक्चर देखने के लिए निकल जाता हूँ, बिना पसीने से तर कपड़े बदले, बिना घर वापस गए, जेब में पैसेके नाम पे कुछ नही, टिकेट का ठिकाना नही, और क्या देखने जा रहा हु उसके बार में भी कुछ ख़ास नही पता था

हाँ इतना पता था, की एक पिक्चर आई है, गुजरात दंगो पे, नंदिता दास ने बनाई हैवहाँ इस बंगलोर के ट्रैफिक में पहुंचना वो भी टाइम पे, एक चमत्कार ही समझा जायेगा, मेरा एक दोस्त पिक्चर का इतना शौकीन है की वो आज शनिवार के दिन जिस दिन वो सामान्यतया बजे उठता है, सिर्फ़ पिक्चर के लिए वहाँ तैयार हो के पहुँच चुका थाऔर बार बार कॉल कर रहा था पूछने के लिए की हम लोग कहाँ तक पहुंचेखैर हम लोग तोह भटकते हुए, वहाँ पहुँच ही गए, थोडी देर तोह हो ही चुकी थीपर ठीक ठाक टाइम पे पहुँच गएवहाँ जा के सबसे पहले कुछ खाने के इन्तेजाम किया, टिकेट लिया और जा के बैठ गए हॉल मेंवहाँ गिनती के १०- १२ लोग पिक्चर देख रहे थेनाम था फिराक

पिक्चर देखते देखते ख्याल आया की उन लोगो पर क्या गुज़र रही होगी इसका अंदाजा पिक्चर में लगाना बहुत मुश्किल हैहर पल खौफ में जीना किसे कहते हैं यह शायद हमें पता नही, और कोई ये जान ना नही चाहतेजब इंसान इतना डर जाए की अपने घर जाने में भी डरे तोह समझा जा सकता है की वोह किस मुसीबत से गुज़र रहा है

वहाँ गुजरात में हिंदू मुस्लिम ऐसे लड़ रहे थे जैसे एक देश के वासी नही किसी जंगल के दो जानवर अपने अपने वजूद के लिए लड़ रहे हो, और दोनों को ही एक दुसरे को खाने के लिए भगवान् ने बनाया होलेकिन गुजरात में सिर्फ़ एक ही जानवर आपस में कट मर रहा थाकिस बात से क्या शुरू हुआ ये सब लिखते रहेंगेक्यूँ हुआ ये सभी को पता हैलेकिन क्या किसी इंसान को मारते हुए एक ज़रा सा भी ख्याल नही आया दुसरे इंसान के दिमाग मेंक्या हम इतना गिर चुके  हैं की एक दुसरे की ज़िन्दगी की ज़रा भी कीमत नही रह गई? ऐसा क्यूँ?

शायद इस सवाल का जवाब देने की बजाय हमारा सर शर्म से झुक जाएपता नही ऐसा होगा की नही क्यूंकि हम तोह सर झुकाना भी भूल चके हैं और सर कटवाना भी.. हमे अगर याद है तोह सिर्फ़ सर काटनाकिसी कमज़ोर का सर काटना

किसी का पक्ष नही लेना चाहता यहाँ पेलेकिन क्या राम और अल्लाह एक साथ नही रह सकते? क्या चर्च की घंटियाँ और मन्दिर की घंटिया अलग अलग आवाज़ करती हैं? क्या गुरुद्वारे में और मंदिरों में लोग माथा नही टेकते? तोह क्यूँ फ़िर हम इंसान साथ रह कर एक खुबसूरत विश्व का निर्माण करते? एक ऐसी सुबह के इंतज़ार में जब भाई भाई को काटे, जब इंसान सौहार्द से जीवन व्यतीत करे एक ऐसी सुबह की तलाश में , मैं यह स्वप्न देखता हूँ , और चाहता हूँ  की ऐसी कहा का कभी कभी अंत हो जायेगाफ़िर उस विश्व मन्दिर का स्वप्न भी याद जरता हूँ  जो  कभी हमने स्कूल में पढ़ा था लेकिन कभी उसे असलियत बनाने  की कोशिश नही की

आज के लिए इतना हीअभी काफ़ी लिखना है