Tuesday, February 24, 2009

रामधारी सिंह दिनकर- दया और क्षमा

आज इतने सालो के बाद जब मैं अपनी स्कूल जीवन की और देखता हु तोह सोचता हु वोह दिन क्या दिन थे, वोह नई किताबो की खुशबू, नई क्लास में जाने का उत्साह, वो शिक्षक , और वोह शानदार बिल्डिंग , हर शनिवार को होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम । आज एक ऐसी ही कविता जो शायद हमारे स्कूल जीवन का एक स्तम्भ बन गई उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हु। इन्टरनेट पे यह कविता मिल तोह जायेगी लेकिन यह मैं उन सभी के लिए कर रहा हु जिन्हें हिन्दी से प्रेम है और जो ऐसी कविताओं का आदर करते हैं। आज रॉक के इस ज़माने में अगर कोई हिन्दी प्रेमी मिलता है तोह अच्छा लगता है, उन सभी हिन्दी प्रेमियों के लिए रामधारी सिंह दिनकर की अविस्मरनीय कविता :

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?



क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।



अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।



क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, विरल हो ।



तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।



उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।



सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।



सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।



सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी ....!!

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बोहोत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फ़िर भी कम निकले ।

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ, जो चश्म-ए-तर से ‘उम्र भर यूँ दम-बा-दम निकले ।

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आयें हैं लेकिन
बोहोत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा ज़ालिम
कहीं ‘एसा न हो याँ भी वोही क़ाफ़िर सनम निकले ।

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा “ग़ालिब” और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
— हरिवंशराय बच्चन