वो सुबह कभी तो आएगी..
आज शनिवार के दिन मेरे लिए सवेरा कुछ जल्दी ही हो जाता है, सवेरे सवेरे क्रिकेट खेलने का शौक हमें मैदान की ओर ले जाता है। वहाँ कुछ देर खेल के चूर हो जाने के बाद, ऐसे ही एक पिक्चर देखने के लिए निकल जाता हूँ, बिना पसीने से तर कपड़े बदले, बिना घर वापस गए, जेब में पैसेके नाम पे कुछ नही, टिकेट का ठिकाना नही, और क्या देखने जा रहा हु उसके बार में भी कुछ ख़ास नही पता था।
हाँ इतना पता था, की एक पिक्चर आई है, गुजरात दंगो पे, नंदिता दास ने बनाई है। वहाँ इस बंगलोर के ट्रैफिक में पहुंचना वो भी टाइम पे, एक चमत्कार ही समझा जायेगा, मेरा एक दोस्त पिक्चर का इतना शौकीन है की वो आज शनिवार के दिन जिस दिन वो सामान्यतया २ बजे उठता है, सिर्फ़ पिक्चर के लिए वहाँ तैयार हो के पहुँच चुका था। और बार बार कॉल कर रहा था पूछने के लिए की हम लोग कहाँ तक पहुंचे। खैर हम लोग तोह भटकते हुए, वहाँ पहुँच ही गए, थोडी देर तोह हो ही चुकी थी। पर ठीक ठाक टाइम पे पहुँच गए। वहाँ जा के सबसे पहले कुछ खाने के इन्तेजाम किया, टिकेट लिया और जा के बैठ गए हॉल में। वहाँ गिनती के १०- १२ लोग पिक्चर देख रहे थे। नाम था फिराक ।
पिक्चर देखते देखते ख्याल आया की उन लोगो पर क्या गुज़र रही होगी इसका अंदाजा पिक्चर में लगाना बहुत मुश्किल है। हर पल खौफ में जीना किसे कहते हैं यह शायद हमें पता नही, और न कोई ये जान ना नही चाहते। जब इंसान इतना डर जाए की अपने घर जाने में भी डरे तोह समझा जा सकता है की वोह किस मुसीबत से गुज़र रहा है।
वहाँ गुजरात में हिंदू मुस्लिम ऐसे लड़ रहे थे जैसे एक देश के वासी नही किसी जंगल के दो जानवर अपने अपने वजूद के लिए लड़ रहे हो, और दोनों को ही एक दुसरे को खाने के लिए भगवान् ने बनाया हो। लेकिन गुजरात में सिर्फ़ एक ही जानवर आपस में कट मर रहा था। किस बात से क्या शुरू हुआ ये सब लिखते रहेंगे। क्यूँ हुआ ये सभी को पता है। लेकिन क्या किसी इंसान को मारते हुए एक ज़रा सा भी ख्याल नही आया दुसरे इंसान के दिमाग में। क्या हम इतना गिर चुके हैं की एक दुसरे की ज़िन्दगी की ज़रा भी कीमत नही रह गई? ऐसा क्यूँ?
शायद इस सवाल का जवाब देने की बजाय हमारा सर शर्म से झुक जाए। पता नही ऐसा होगा की नही क्यूंकि हम तोह सर झुकाना भी भूल चके हैं और सर कटवाना भी.. हमे अगर याद है तोह सिर्फ़ सर काटना। किसी कमज़ोर का सर काटना।
किसी का पक्ष नही लेना चाहता यहाँ पे। लेकिन क्या राम और अल्लाह एक साथ नही रह सकते? क्या चर्च की घंटियाँ और मन्दिर की घंटिया अलग अलग आवाज़ करती हैं? क्या गुरुद्वारे में और मंदिरों में लोग माथा नही टेकते? तोह क्यूँ फ़िर हम इंसान साथ रह कर एक खुबसूरत विश्व का निर्माण करते? एक ऐसी सुबह के इंतज़ार में जब भाई भाई को न काटे, जब इंसान सौहार्द से जीवन व्यतीत करे एक ऐसी सुबह की तलाश में , मैं यह स्वप्न देखता हूँ , और चाहता हूँ की ऐसी कहा का कभी न कभी अंत हो जायेगा। फ़िर उस विश्व मन्दिर का स्वप्न भी याद जरता हूँ जो कभी हमने स्कूल में पढ़ा था लेकिन कभी उसे असलियत बनाने की कोशिश नही की।
आज के लिए इतना ही। अभी काफ़ी लिखना है
आज शनिवार के दिन मेरे लिए सवेरा कुछ जल्दी ही हो जाता है, सवेरे सवेरे क्रिकेट खेलने का शौक हमें मैदान की ओर ले जाता है। वहाँ कुछ देर खेल के चूर हो जाने के बाद, ऐसे ही एक पिक्चर देखने के लिए निकल जाता हूँ, बिना पसीने से तर कपड़े बदले, बिना घर वापस गए, जेब में पैसेके नाम पे कुछ नही, टिकेट का ठिकाना नही, और क्या देखने जा रहा हु उसके बार में भी कुछ ख़ास नही पता था।
हाँ इतना पता था, की एक पिक्चर आई है, गुजरात दंगो पे, नंदिता दास ने बनाई है। वहाँ इस बंगलोर के ट्रैफिक में पहुंचना वो भी टाइम पे, एक चमत्कार ही समझा जायेगा, मेरा एक दोस्त पिक्चर का इतना शौकीन है की वो आज शनिवार के दिन जिस दिन वो सामान्यतया २ बजे उठता है, सिर्फ़ पिक्चर के लिए वहाँ तैयार हो के पहुँच चुका था। और बार बार कॉल कर रहा था पूछने के लिए की हम लोग कहाँ तक पहुंचे। खैर हम लोग तोह भटकते हुए, वहाँ पहुँच ही गए, थोडी देर तोह हो ही चुकी थी। पर ठीक ठाक टाइम पे पहुँच गए। वहाँ जा के सबसे पहले कुछ खाने के इन्तेजाम किया, टिकेट लिया और जा के बैठ गए हॉल में। वहाँ गिनती के १०- १२ लोग पिक्चर देख रहे थे। नाम था फिराक ।
पिक्चर देखते देखते ख्याल आया की उन लोगो पर क्या गुज़र रही होगी इसका अंदाजा पिक्चर में लगाना बहुत मुश्किल है। हर पल खौफ में जीना किसे कहते हैं यह शायद हमें पता नही, और न कोई ये जान ना नही चाहते। जब इंसान इतना डर जाए की अपने घर जाने में भी डरे तोह समझा जा सकता है की वोह किस मुसीबत से गुज़र रहा है।
वहाँ गुजरात में हिंदू मुस्लिम ऐसे लड़ रहे थे जैसे एक देश के वासी नही किसी जंगल के दो जानवर अपने अपने वजूद के लिए लड़ रहे हो, और दोनों को ही एक दुसरे को खाने के लिए भगवान् ने बनाया हो। लेकिन गुजरात में सिर्फ़ एक ही जानवर आपस में कट मर रहा था। किस बात से क्या शुरू हुआ ये सब लिखते रहेंगे। क्यूँ हुआ ये सभी को पता है। लेकिन क्या किसी इंसान को मारते हुए एक ज़रा सा भी ख्याल नही आया दुसरे इंसान के दिमाग में। क्या हम इतना गिर चुके हैं की एक दुसरे की ज़िन्दगी की ज़रा भी कीमत नही रह गई? ऐसा क्यूँ?
शायद इस सवाल का जवाब देने की बजाय हमारा सर शर्म से झुक जाए। पता नही ऐसा होगा की नही क्यूंकि हम तोह सर झुकाना भी भूल चके हैं और सर कटवाना भी.. हमे अगर याद है तोह सिर्फ़ सर काटना। किसी कमज़ोर का सर काटना।
किसी का पक्ष नही लेना चाहता यहाँ पे। लेकिन क्या राम और अल्लाह एक साथ नही रह सकते? क्या चर्च की घंटियाँ और मन्दिर की घंटिया अलग अलग आवाज़ करती हैं? क्या गुरुद्वारे में और मंदिरों में लोग माथा नही टेकते? तोह क्यूँ फ़िर हम इंसान साथ रह कर एक खुबसूरत विश्व का निर्माण करते? एक ऐसी सुबह के इंतज़ार में जब भाई भाई को न काटे, जब इंसान सौहार्द से जीवन व्यतीत करे एक ऐसी सुबह की तलाश में , मैं यह स्वप्न देखता हूँ , और चाहता हूँ की ऐसी कहा का कभी न कभी अंत हो जायेगा। फ़िर उस विश्व मन्दिर का स्वप्न भी याद जरता हूँ जो कभी हमने स्कूल में पढ़ा था लेकिन कभी उसे असलियत बनाने की कोशिश नही की।
आज के लिए इतना ही। अभी काफ़ी लिखना है
1 comment:
अच्छा लिखा है दोस्त....
लेकिन क्या ये चीज़ किसी ने सोची है के ये सब क्यों हो रहा है.....कृपा करके...धर्म और आस्था को इसके बीच में नहीं लाना चाहिए....
इन सब तरह की असहिष्णु कृत्यों और बुरइयो के पीछे....अगर किसी चीज़ का हाथ अहि तो वो है इंसान नाम के जानवर का इंसानियत से दूर हो जाना.....
और अगर ये जानवर इंसानियत से दूर हुआ है तो उसका कारन क्या है.....कुछ लोग शायद ये जानने की कोशिश भी करते है लेकिन जवाब कही न कही खो जाता है......
ऐसा नहीं है के आज की तेज़ दौड़ भाग और चिल्ल-पों में ही ये जवाब कही खो जाता होगा........हम खुद ज़िम्मेदार हैं...कही न कही सच्चाई हम भी जानते हैं..इन्सान के लिए सबसे पहली चीज़ कोई है तो वो है इंसानियत !
न जाने कितने स्कूल कॉलेज और पता नहीं कहा..कहा क्या कुछ नहीं पद्य जाता ..लेकिन शायद ही कही इंसानियत सिखाई जाती हो...
और अगर आप गौर करेंगे तो शायद यही एक चीज़ है जो एक इन्सान को दुसरे इन्सान से जोडके रख सकती है....
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